भगवान शिव और माता सती का अगस्त्य आश्रम आगमन
त्रेता युग का समय था। एक दिन भगवान शिव, माता सती के साथ बिहार करते हुए अगस्त्य ऋषि के आश्रम पहुँचे। आश्रम में दोनों का आगमन देखकर अगस्त्य ऋषि ने बड़े ही श्रद्धा और प्रेम से उनका स्वागत किया, दंडवत प्रणाम किया और पूजन कर उन्हें बैठाया। भगवान शिव ने अगस्त्य ऋषि को प्रभु श्रीराम का भक्त समझकर उनसे हरिभक्ति के रहस्य पर चर्चा की और आग्रह किया – “हे मुनि! कृपा कर हमें रामकथा का श्रवण कराइए।” ऋषि अगस्त्य ने इसे अपना परम सौभाग्य मानकर बड़े प्रेम से रामकथा का गान करना प्रारंभ किया।
रामकथा का आनंद और शिवजी की उत्कंठा
अनेक दिनों तक भगवान शिव अगस्त्य मुनि के आश्रम में रामकथा सुनते रहे। कथा में इतने तल्लीन हो गए कि समय का भान ही नहीं रहा। अंततः मुनि की आज्ञा लेकर शिवजी, माता सती के साथ कैलाश लौटने लगे। यात्रा के दौरान शिवजी के हृदय में यह विचार उठ रहा था कि “काश! मुझे स्वयं श्रीराम के दर्शन हो जाएँ।” वे भीतर ही भीतर अत्यधिक उत्सुक हो रहे थे, परंतु इस भाव को उन्होंने माता सती से प्रकट नहीं किया।
राम का दर्शन और सती का संदेह
इसी समय श्रीराम वनवास के दौरान माता सीता की खोज में वन-वन भटक रहे थे। जब शिवजी ने उन्हें देखा तो उनका हृदय आनंद से भर गया। उन्होंने राम को साक्षात परमब्रह्म स्वरूप पहचाना, किंतु उचित समय न समझकर मौन रहे। माता सती ने जब देखा कि देवाधिदेव महादेव, जिन्हें समस्त देवता पूजते हैं, वे एक साधारण राजकुमार को प्रणाम कर रहे हैं, तो उनके मन में संदेह उत्पन्न हो गया। उन्हें लगा – “जो परमब्रह्म हैं, अजनमा, सर्वव्यापक और वेदों से भी परे हैं, क्या वे सचमुच मानव रूप धारण कर सकते हैं? और यदि वे भगवान विष्णु ही हैं, तो वे ऐसे अज्ञानी की तरह क्यों सीता को खोजते फिर रहे हैं?”
शिवजी का उपदेश और सती का आग्रह
भगवान शिव ने माता सती के मन की बात जान ली। उन्होंने सती को समझाया – “हे सती! जिनकी कथा अगस्त्य मुनि ने सुनाई है, वही मेरे आराध्य प्रभु श्रीराम हैं। वे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी हैं और भक्तों के हित के लिए ही अवतार लेते हैं।” परंतु माता सती को यह सत्य स्वीकार नहीं हुआ। शिवजी ने बहुत समझाया, लेकिन संदेह ज्यों का त्यों बना रहा। अंततः उन्होंने कहा – “यदि तुम्हारे मन में संदेह है, तो स्वयं जाकर उनकी परीक्षा ले आओ। मैं यहीं इस वृक्ष की छाँव में प्रतीक्षा करता हूँ।”
सती का परीक्षण
शिवजी की आज्ञा पाकर माता सती परीक्षा लेने चल पड़ीं। वे सोच रही थीं कि यदि श्रीराम वास्तव में परमब्रह्म हैं, तो उनकी परीक्षा से यह सत्य प्रकट हो जाएगा। सती ने माता सीता का रूप धारण कर उसी मार्ग पर जाना शुरू किया, जिस पर राम और लक्ष्मण सीता की खोज में भटक रहे थे।जब रामचंद्रजी ने उन्हें देखा तो तुरंत समझ गए कि यह लीला सती की है। उन्होंने आदरपूर्वक हाथ जोड़कर कहा – “माता! आप इस वन में अकेली कैसे? शिवजी कहाँ हैं?” यह सुनकर सती अत्यंत लज्जित हो गईं, क्योंकि राम ने उनके भेष को तुरंत पहचान लिया था। वे मौन रहकर लौट आईं।
सती का पश्चाताप और राममाया का दर्शन
लौटते समय सती गहरे पश्चाताप से व्याकुल थीं – “मैंने शिवजी का कहा नहीं माना, अपने अज्ञानवश रामजी पर संदेह किया।” तभी मार्ग में उन्होंने विचित्र दृश्य देखा – जहाँ भी देखतीं, राम-सीता-लक्ष्मण एक साथ दिखाई देते। इस अद्भुत माया को देखकर वे घबरा गईं और आँखें बंद कर वहीं बैठ गईं। जब पुनः आँखें खोलीं, तो सब विलीन हो चुका था। उन्हें श्रीराम की महिमा का बोध हो गया और वे मन ही मन उन्हें प्रणाम कर शिवजी के पास लौट आईं।
शिवजी का संताप
शिवजी ने मुस्कुराकर पूछा “तो सती, तुमने श्रीराम की परीक्षा किस प्रकार ली? सच-सच कहो।” सती जी घबराईं और सत्य छुपा लिया। उन्होंने कहा “मैंने कुछ नहीं किया, बस प्रणाम किया। आपने जो कहा, वही सत्य है।” किंतु शिवजी तो सर्वज्ञ थे। उन्होंने ध्यान में सब देख लिया और समझ गए कि यह सब राममाया ही थी, जिसने सती से असत्य कहलवा दिया। यह जानकर शिवजी का हृदय दुख से भर गया। वे सोचने लगे “सती ने सीता का रूप धारण कर मर्यादा का उल्लंघन किया है। यदि मैं इन्हें पत्नी रूप में स्वीकार करता हूँ तो भक्ति मार्ग भ्रष्ट हो जाएगा, और यदि त्याग दूँ तो इनकी पवित्रता पर प्रश्न उठेगा। इस स्थिति में मेरा मौन ही उचित है। कुछ समय बाद भगवानशिव माता सती के साथ कैलाशपर्वत बैठे होते तो वो आकाश में विमानों को जाते हुए दिखती तो पूछती हैं”
आकाश में जाते देवता और माता सती का आग्रह
एक दिन कैलाश पर भगवान शिव माता सती के साथ विराजमान थे। उसी समय आकाश में अनेक देवताओं के विमान दिखाई दिए। सती ने आश्चर्य से पूछा “स्वामी! ये देवता कहाँ जा रहे हैं?” भगवान शिव ने ध्यान लगाया और बोले “हे सती! तुम्हारे पिता दक्ष प्रजापति एक भव्य यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं। ये सभी देवता वहीं जा रहे हैं।” यह सुनकर सती का मन मायके की ओर खिंच गया। उन्होंने शिवजी से आग्रह किया “नाथ! यदि मेरे पिता के यहाँ इतना बड़ा यज्ञ हो रहा है तो मुझे वहाँ जाने दीजिए। पुत्री होने के नाते अपने घर जाने के लिए निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती। मुझे भी वहाँ सम्मिलित होना है।”
भगवान शिव का निषेध
शिवजी ने सती को शांत स्वर में समझाया “प्रिय! यद्यपि तुम दक्ष की पुत्री हो, परंतु वे मेरे विरोधी हैं। अहंकारवश वे सदैव मेरा अपमान करते हैं। मैं जानता हूँ कि उस यज्ञ में तुम्हारा स्वागत नहीं होगा, उल्टे तुम्हें और मुझे तिरस्कार सहना पड़ेगा। अतः तुम्हारा वहाँ जाना अनुचित है।” लेकिन सती अपने मायके जाने की ज़िद पर अडिग रहीं। उन्होंने कहा “स्वामी! पिता का घर अपना ही होता है। वहाँ जाने से मुझे कौन रोक सकता है? कृपया मुझे वहाँ जाने की अनुमति दें।” शिवजी ने उनकी जिद देखकर मौन हो गए और अनुमति दे दी।
यज्ञ में सती का अपमान
सती पिता के यज्ञ में पहुँचीं। वहाँ का दृश्य देखकर वे स्तब्ध रह गईं। समस्त देवता, ऋषि-मुनि, राजर्षि, सबका आदर-सत्कार हो रहा था। लेकिन उनके और भगवान शिव के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया था। जब सती ने देखा कि न तो उनके पति शिवजी का यज्ञ में आह्वान हुआ है और न ही उनके लिए अर्घ्य या आसन, तो वे व्याकुल हो उठीं। अपने पिता दक्ष से बोलीं “पिताश्री! आपने देवताओं को आमंत्रित किया, सभी का सम्मान किया, परंतु जगत के पालनकर्ता, देवाधिदेव भगवान शिव का तिरस्कार क्यों किया? आप जानते हैं कि वे मेरे स्वामी और समस्त प्राणियों के गुरु हैं। उनका अपमान करना पूरे ब्रह्मांड का अपमान है।” लेकिन दक्ष अहंकार में डूबे थे। उन्होंने शिवजी को कठोर वचनों से अपमानित किया और सती के प्रति भी कोई आदर नहीं दिखाया।
माता सती का अग्निप्रवेश
पिता के इस आचरण से माता सती का हृदय आहत हो गया। वे क्रोधित और दुखी होकर बोलीं ,दुर्भाग्य है कि मैं ऐसे पिता की पुत्री हूँ जिसने देवाधिदेव का अपमान किया। अब यह शरीर, जो आपके गर्भ से उत्पन्न हुआ है, मेरे लिए पवित्र नहीं रहा। मैं इसे त्याग दूँगी और पुनः शिवजी की पवित्र अर्धांगिनी बनूँगी। ऐसा कहकर सती ने ध्यानमग्न होकर योगाग्नि प्रज्वलित की और उसी यज्ञमंडप में अग्निप्रवेश कर दिया।
परिणाम
सती के अग्निप्रवेश की खबर जब भगवान शिव को मिली, तो वे गहरे शोक और क्रोध से भर उठे। उनकी जटाओं से प्रकट हुए वीरभद्र ने यज्ञ स्थल को ध्वस्त कर दिया और दक्ष का वध कर दिया। बाद में देवताओं की प्रार्थना पर शिवजी ने दक्ष को जीवनदान दिया। माता सती ने अगले जन्म में हिमवान की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया और कठोर तपस्या कर पुनः भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया।
कथा से शिक्षा
यह प्रसंग हमें गहरी शिक्षा देता है कि भगवान हमें परीक्षा से नहीं मिलते। उनकी महिमा तर्क और संदेह से नहीं, बल्कि श्रद्धा और भक्ति से समझी जाती है। भगवान श्रीराम वास्तव में परमब्रह्म हैं, जो भक्तों के कल्याण के लिए अवतार लेते हैं। अहंकार का परिणाम विनाश होता है। शिव जैसे सरल और निष्कपट देव का अपमान करने से संपूर्ण यज्ञ भी व्यर्थ हो जाता है। माता सती का त्याग हमें यह सिखाता है कि अपमान और अन्याय सहने से अच्छा है धर्म और मर्यादा की रक्षा करना।
माता सती और दक्ष यज्ञ प्रसंग : FAQ
Q1. माता सती ने अपने पिता के यज्ञ में जाने का आग्रह क्यों किया?
A1.* जब उन्होंने आकाश में देवताओं के विमान यज्ञ की ओर जाते देखे, तो उनका मन मायके जाने को व्याकुल हो गया और उन्होंने शिवजी से अनुमति माँगी।
Q2. भगवान शिव ने सती को यज्ञ में जाने से क्यों रोका?
A2.* क्योंकि शिवजी जानते थे कि दक्ष उनसे वैर रखते हैं और यज्ञ में उनका तिरस्कार करेंगे।
Q3. सती ने शिवजी के मना करने पर भी यज्ञ में क्यों जाने का निर्णय लिया?
A3.* उन्होंने कहा कि पुत्री को पिता के घर जाने के लिए निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती, और आग्रहपूर्वक जाने की जिद कर दी।
Q4. यज्ञ में सती के साथ कैसा व्यवहार हुआ?
A4.* वहाँ सभी देवताओं और ऋषियों का सम्मान किया गया, परंतु भगवान शिव और सती का कोई सत्कार नहीं हुआ। शिवजी की निंदा भी की गई।
Q5. सती ने यज्ञ में अपने पिता दक्ष को क्या कहा?
A5.* उन्होंने कहा कि आपने देवाधिदेव महादेव का अपमान किया है, जो समस्त ब्रह्मांड के स्वामी हैं। इस अपमान से समूचा यज्ञ निष्फल हो जाएगा।
Q6. सती ने अग्निप्रवेश क्यों किया?
A6.* उन्हें लगा कि जिस शरीर का जन्म ऐसे पिता के गर्भ से हुआ, जिन्होंने शिवजी का अपमान किया, वह शरीर अब उनके लिए अपवित्र है। इसलिए उन्होंने योगाग्नि द्वारा देह त्याग कर अग्निप्रवेश किया।
Q7. सती के अग्निप्रवेश के बाद क्या हुआ?
A7.* भगवान शिव को जब यह समाचार मिला तो वे शोक और क्रोध से भर गए। उन्होंने अपनी जटाओं से वीरभद्र को उत्पन्न किया, जिसने दक्ष यज्ञ को नष्ट कर दिया और दक्ष का वध कर दिया।
Q8. क्या दक्ष को पुनः जीवन मिला?
A8.* हाँ, देवताओं और ऋषियों की प्रार्थना पर भगवान शिव ने दक्ष को जीवनदान दिया।
Q9. माता सती ने अगली बार कहाँ जन्म लिया?
A9.* माता सती ने हिमवान और मैना के घर *पार्वती* के रूप में जन्म लिया।
Q10. माता पार्वती ने पुनः शिवजी को कैसे प्राप्त किया?
A10.* कठोर तपस्या कर उन्होंने भगवान शिव को पति रूप में पुनः प्राप्त किया और वे जगन्माता पार्वती कहलाईं।